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शनिवार, दिसंबर 24, 2011

कागज के रावण मत फूकों, जिन्दा रावण बहुत पड़े हैं

दोस्तों, फेसबुक पर डाले एक नोट को देखें. यह विजयदशमी के मौके पर डाला गया था. इस नोट पर आई टिप्पणियाँ भी बहुत गजब की थीं. आप यहाँ (http://www.facebook.com/note.php?note_id=241861105864534) पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं.   

       हम दशहरे पर बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतीक के लिए कागज के रावण बहुत फूंकते हैं. मगर समाज की बुराईयों व भ्रष्टाचार के खिलाफ चुप बैठे रहते हैं. इसी व्यवस्था पर कवि स्व. मनोहर लाल "रत्नम" अपनी एक कविता में कहते हैं कि "अर्थ हमारे व्यर्थ हो रहे, कागज के पुतले और खड़े हैं. कागज के रावण मत फूकों, जिन्दा रावण बहुत पड़े हैं" आज हमें उठना होगा और समाज की बुराईयों व भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करनी होगी. हम सब में कही न कही आज भी रावण मौजूद है. हम कागज के रावण जलाते हैं. लेकिन हम अपने अंदर के रावण को नहीं मारना चाहते हैं. क्यों नहीं इस पावन दशहरा के अवसर पर हम अपने अन्दर रह रहे रावणरूपी दानव को जलाकर आओ हम सब असली दशहरा मनायें. क्या ख्याल है...........आपका ? आप सभी को और आपके परिवार को विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें.

रमेश कुमार सिरफिरा द्वारा 6 अक्टूबर 2011 को 17:59 बजे पर

मौत आने तक सच लिखेंगी मेरी कलम
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